सच बड़ा अकेला और ख़ाली-ख़ाली होता है।इसमें किसी भी तरह की रचनात्मकता की गुंजाइश नहीं होती।सच इतना मनहूस है कि उसके साहित्य में प्रवेश करते ही कविता अपठनीय हो जाती है।कहानी उदासी और ऊब पैदा करती है।जबकि झूठ के साथ मनचाहे प्रयोग किए जा सकते हैं।वह कल्पना-शक्ति को विस्तार देता है।वह साहित्य को समृद्ध भी करता है।झूठ को साहित्य,राजनीति और सिनेमा हर जगह से निकालकर देखिए,इतिहास मिटने की नौबत आ जाएगी।इसीलिए सच ठिकाने लगा है और झूठ के सब जगह ठिकाने हैं।
दंगा करना हँसी-ठट्ठा नहीं है साहब ! दंगे यूँ ही नहीं हो जाते।बड़ी मेहनत लगती है,तब कहीं जाकर सुलगते हैं।घर की छतों से पतंग ही नहीं पत्थर और पेट्रोल-बम भी चलाए जा सकते हैं।एक हाथ से पत्थर,गोली और गुलेल तो दूसरे हाथ से अफ़वाह चलानी पड़ती है।बिना अफ़वाह के गुलेल चलाने से कुछ नहीं हासिल होगा।चैनलों में रत्ती भर की भी ‘बाइट’ नहीं मिलेगी।अफ़वाह जितना फैलेगी,दंगा उतना ही समृद्ध होगा।लेकिन बिना छुरा घोंपे कोई भी दंगा प्रामाणिक नहीं होता।
लगभग दस सालों से व्यंग्य-लेखन में सक्रिय।देश के कई समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में लेखन। ‘सब मिले हुए हैं’ व ‘नकटों के शहर में’ व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित।कविताई में भी गहन रुचि।
मूलतःदूलापुर, रायबरेली (उ.प्र.) से।संप्रति दिल्ली में अध्यापन-कार्य।
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