जैन धर्म की स्तोत्र-परंपरा में भक्तामर स्तोत्र सर्व प्रतिष्ठित है। यदि यह कहा जाए कि जो स्थान मंत्रों में महामंत्र णमोकार का, तीर्थों में तीर्थराज सम्मेदशिखर का, जिनवाणी की परंपरा में तत्वार्थ सूत्र का और प्रतिमाओं में श्री गोम्मटेश्वर बाहुबली की मूर्ति का, वही स्थान प्रभु की स्तुतियों में श्री भक्तामर जी का है, तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। जो भव्य जीव इस अनुपम, अद्वितीय स्तोत्र के माध्यम से अर्हद्-भक्ति करते हैं, उन के जीवन में रोग, शोक, भय, व्याधि, दारिद्र्य, ईति भीति आदि संकट दूर से ही पलायन कर जाते हैं और उन के मन में प्रशस्त व विशुद्ध भावों का संचार होता है, जिस से आत्म-कल्याण होता है। दीपार्चन साधक के भीतर यह भाव जागृत हो, इस विचार के साथ इस कृति की संकल्पना की गई है।
परमपूज्य श्री मानतुंग आचार्य जी की अद्भुत भक्ति', परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य परमपूज्य निर्यापक-श्रमण, मुनि-पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज की ऋद्धि-मंत्रों के साथ भक्तामर की साधना के द्वारा ४८ छंदों का ६४ ऋद्धियों सहित संध्या काल में देवाधिदेव १००८ श्री आदिनाथ जी के समक्ष ४८ दीपों को क्रमशः ज्योतित कर प्रस्तुत कृति में दिये गये 'भक्तामर दीपार्चन' के पाठ के द्वारा दीपार्चन करने की नयी विधा से जन-मानस को परिचित कराया गया है। इस में मूल छंदों और मंत्रों के साथ अँग्रेजी पद्यानुवाद है तथा छंदों का अर्थ हिंदी व अँग्रेजी में सरल एवं बोधगम्य भावों के साथ दिया गया है, जिस से कि भक्त-पाठक बौद्धिक रूप से भक्तामर के भक्ति भाव से जुड़े हुए पानी में विभोर हो और इस प्रकार पूर्ण समर्पण के साथ दीपार्चन कर सके।
इस पाठ में भक्ति, ऋद्धि एवं भाव तीनों समाहित हैं, जो अपने में अद्भुत एवं लक्षण हैं व भक्तामर की महिमा को बहु गुणित करने में समर्थ हैं।
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