Virata Ki Padmini: Bestseller Book by Vrindavan Lal Verma: Virata Ki Padmini

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भक्त का हठ चढ़ चुका था, ‘नहीं देवी, आज वरदान देना होगा।... यदि दलीपनगर के धर्मानुमोदित महाराज कुंजरसिंह से हार गए, यदि अलीमर्दान ने ऐसी अव्यवस्थित अवस्था में राज्य पाया, तो आपके मंदिर का क्या होगा? धर्म का क्या होगा?...’

‘क्या चाहती हो गोमती?’

‘यह भीख माँगती हूँ कि कुंजरसिंह का नाश हो, अलीमर्दान मर्दित हो और दलीपनगर के महाराज की जय हो।’

‘यह न होगा गोमती, परंतु मंदिर की रक्षा होगी और अलीमर्दान का मर्दन होगा...।’

‘यह वरदान नहीं है, यह मेरे लिए अभिशाप है देवी! मैं इस समय, इस तपोमय भवन में, इस बेतवा के कोलाहल के बीच चरणों में अपना मस्तक काटकर अर्पण करूँगी।’

कुमुद ने देखा, गोमती ने अपनी कमर से कुछ निकाला...

—इसी उपन्यास से

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मूर्द्धन्य उपन्यासकार श्री वृंदावनलाल वर्मा का जन्म ९ जनवरी, १८८९ को मऊरानीपुर (झाँसी) में एक कुलीन श्रीवास्तव कायस्थ परिवार में हुआ था। इतिहास के प्रति वर्माजी की रुचि बाल्यकाल से ही थी। अतः उन्होंने कानून की उच्च शिक्षा के साथ-साथ इतिहास, राजनीति, दर्शन, मनोविज्ञान, संगीत, मूर्तिकला तथा वास्तुकला का गहन अध्ययन किया। ऐतिहासिक उपन्यासों के कारण वर्माजी को सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई। उन्होंने अपने उपन्यासों में इस तथ्य को झुठला दिया कि ‘ऐतिहासिक उपन्यास में या तो इतिहास मर जाता है या उपन्यास’, बल्कि उन्होंने इतिहास और उपन्यास दोनों को एक नई दृष्टि प्रदान की। उनकी साहित्य सेवा के लिए भारत सरकार ने आपको ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से विभूषित किया; आगरा विश्वविद्यालय ने डी.लिट्. की मानद उपाधि प्रदान की। उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया तथा ‘झाँसी की रानी’ उपन्यास पर भारत सरकार ने दो हजार रुपए का पुरस्कार प्रदान किया। इनके अतिरिक्त उनकी विभिन्न कृतियों के लिए विभिन्न संस्थाओं ने भी उन्हें सम्मानित व पुरस्कृत किया। वर्माजी के अधिकांश उपन्यासों का प्रमुख प्रांतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी, रूसी एवं चैक भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। आपके उपन्यास ‘झाँसी की रानी’ तथा ‘मृगनयनी’ का फिल्मांकन भी हो चुका है।

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