पाँव जम गए जहाँकेतहाँ। आँखें किसी भयावने कोटर पे टँग सी गईं। तभी, ‘‘अबे लड़के! लपक के दो कसोरे बूँदी तो लाना...’’
वह बदहवास हाँफते हुए वापस मामा की ड्योढ़ी तक भागता चला आया था। चीखने, हुमसकर रो पड़ने से होंठ सिल गए।
आँगन में सुहाग वारा जा रहा था मैना जिज्जी पर। सुहागिनों के आँचल के साए में वह सिर झुकाए पीले कनेर सी मुसकरा रही थी। औरतें सुहाग गा रही थीं—‘अरे घुड़सवार! कौन है तू! जानता नहीं, पानफूल सी बहन मेरी, ऐसे ही तेरे हवाले कर दूँ’ भली कि अंदर से भइया की बहन बोली, ‘न भइया, मुझे इसी घुड़सवार के साथ जाने दे। मेरे तो भाग्य का नियंता यही, तू अब रोकना नहीं मुझे।’
—इसी संग्रह से