Safar Lamba Hain

· Vani Prakashan
5,0
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Llibre electrònic
116
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Sobre aquest llibre

“शक बहुत बुरी चीज़ है । ईश्वर न करे कोई इसकी चपेट में आये। इसकी एक छोटी-सी चिनगारी मधुर से मधुर सम्बन्धों को जलाकर राख कर देती है। इसके चलते सम्बन्धों में एक बार जो दरार पड़ जाती है, तो वह पाटे नहीं पटती। इसने न जाने कितने घरों को तबाह कर दिया है। और तो और, शंकालु व्यक्ति अपना जीवन तो तबाह करता ही है, साथ-साथ दूसरों के भी जीवन को नरक कर देता है। अतः इससे हम जितना दूर रहें, उतना ही अच्छा है।"

★★★★★

“मनीष, गाँव अब गाँव कहाँ रहे? गाँव तो गन्दी राजनीति के अखाड़े हो गये हैं। ईर्ष्या-द्वेष, छल-छद्म, कटुता-वैमनस्य आदि के जंगल में गाँवों की सुख-शान्ति भटक गयी है। मानवता को मुँह छिपाने की जगह नहीं मिल रही है। एक समय था जब गाँव के लोग भोले-भाले एवं ईमानदार माने जाते थे और थे भी, पर आज उन्हें सन्दिग्ध दृष्टि से देखा जाता है। उसका कारण है कि हर गाँव में दो-चार ऐसे धूर्त एवं बेईमान हैं, जिन्होंने उसके माहौल को गन्दा कर रखा है। उनके चलते शरीफ़ लोग घुट-घुटकर जी रहे हैं।”

★★★★★

"यह तो मैं नहीं जानती, पर मनुष्य नहीं रहते । भला बताइए, जिस घर का मुखिया भले आदमियों के हाथ-पाँव तोड़वाता हो, जिसका बेटा दूसरों की बहू-बेटियों की इज़्ज़त को मटियामेट करता हो और जो अपने गुण्डों से अपहरण की धमकी दिलवाता हो, उस घर में रहने वालों को मनुष्य कैसे कहा जा सकता है?"

★★★★★

“मनीष बाबू, इतनी जल्दी हार जायेंगे, तो कैसे काम चलेगा? वैसे भी आप कहाँ हारे हैं? हारे तो मेरे पति हैं, जिनके लाख मना करने पर भी मैं आपको मनाने यहाँ चली आयी। इसके अलावा अभी आप अपने गाँव से पूरी तरह उऋण भी तो नहीं हुए? पूर्ण रूप से तो उऋण तब होंगे, जब यहाँ के लोगों की दूषित मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे, अभी तो आपने उसकी शाखाओं को काटा है। मेरे पति और भोला जैसे लोग तो इस पृथ्वी पर रोज़ पैदा होते हैं और रोज़ मरते हैं, पर मनीष तो कभी-कभी पैदा होते हैं। ज़्यादा तो नहीं, पर इतना अवश्य कहूँगी कि आपने अपने जिस गाँव को तूफ़ानों के बीच से निकालकर किनारे लगाया है, आपके चले जाने के बाद ये लोग उसे मझधार में नहीं, किनारे ही डुबो देंगे।”

★★★★★

"आज की नयी पीढ़ी को हो क्या गया है, जो अपने बुजुगों के साथ इस तरह का उपेक्षित व्यवहार कर रही है। क्या वह यह भूल गयी है कि एक न एक दिन उसे भी वृद्ध होना है और तब उसके साथ भी उसकी सन्तानें इसी तरह का व्यवहार करेंगी। बच्चे अपने माँ-बाप से जो सीखेंगे, आगे चलकर वही तो करेंगे। माँ-बाप अपनी सन्तानों से मात्र इतना ही चाहते हैं कि उन्हें दो रोटी मिल जायें और प्रेम के दो शब्द । इससे अधिक उन्हें चाहिए भी नहीं, पर आज की पीढ़ी उन्हें इतना भी नहीं दे पा रही है।"

    

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Sobre l'autor

बाबूराम त्रिपाठी -

जन्मतिथि : 01 जनवरी, 1952

जन्मस्थान : जिला - जौनपुर (उ.प्र.)

शैक्षणिक अर्हता : एम.ए. (हिन्दी), पीएच.डी.

प्रकाशन : सम्पादन : हिन्दी निबन्धावली; शोध-प्रबन्ध: हिन्दी कविता पर निराला काव्य के विषय और भाषा संरचना का प्रभाव कहानी-संग्रह : जोंक, सब ठीक हो जायेगा, सुर्खाब के पर, जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी, एक सुबह और मिल जाती, वह एक हादसा था, उपन्यास : तथागत, यशोधरा की आत्मकथा।

पुरस्कार : तथागत (उपन्यास) बाणभट्ट पुरस्कार से पुरस्कृत, एक सुबह और मिल जाती (कहानी-संग्रह) पर साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद्, भोपाल द्वारा अखिल भारतीय गजानन माधव मुक्तिबोध पुरस्कार, वर्ष 2012 |

इनके अतिरिक्त आकाशवाणी द्वारा लगभग एक दर्जन कहानियाँ प्रसारित एवं पत्र-पत्रिकाओं में अनेक निबन्ध और कहानियाँ प्रकाशित तथा राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता ।

सम्प्रति : अवकाश प्राप्त प्रोफेसर, पूर्व अध्यक्ष, क्लासिकल एंड मॉडर्न लैंग्वेजज विभाग एवं पूर्व प्रमुख शब्द विद्या संकाय, केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, वाराणसी-221007 (उ.प्र.) ।

वर्तमान पता : सा. 14/70 बी-6, सारंगनाथ कालोनी, बरईपुर, सारनाथ, वाराणसी-221007

मो . : 0-9598070524

ईमेल : [email protected]

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