कुछ गुत्थियां उलझी रह गयीं, कुछ पहेलियां अनसुलझी रह गयीं, लोगों ने सवाल पूछना ज्यों बंद किया, सवाल अनकहे हो गये, नजरें झुकाने की लत लगी और ज्वार अंदर खो गये...बाकीं सब कुछ वहीं रहा! हवाओं में उलझा आदमी एक वहीं खड़ा रहा। शब्दों के जाल में एक कबूतर वहीं पड़ा रहा! दो चक्कों को रोककर घोड़ा वहीं अड़ा रहा। उस पुराने कमरे को खोला, कमरे में बंद अरमानों को टटोला...एक आहट पास आ रही थी। मैंने पाया जिसे अंदर बंद किया था लेकिन परछाई उसकी चौखट से दूर जा रही थी।...और आज पड़े-पड़े ये व्यथा जगी है घर की दीवारें राख हो गयीं और हवा अब तक सर्द है वो आग कौन सी लगी है?
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